भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मत गुस्सेत के शोले सूँ जलते कूँ जलाती जा / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
मत गुस्से के शोले सूँ जलते कूँ जलाती जा
टुक मेहर के पानी सूँ तूँ आग बुझाती जा
तुझ चाल की क़ीमत सूँ दिल नईं है मिरा वाकि़फ़
ऐ मान भरी चंचल टुक भाव बताती जा
इस रात अँधारी में मत भूल पडूँ तुझ सूँ
टुक पाँव के झाँझर की इनकार सुनाती जा
मुझ दिल के कबूतर कूँ पकड़ा है तिरी लट ने
ये काम धरम का है टुक इसको छुड़ाती जा
तुझ मुख की परस्तिश में गई उम्र मिरी सारी
ऐ बुत की पुजनहारी टुक इसको पुजाती जा
तुझ इश्क़ में जल-जल कर सब तन कूँ किया काजल
ये रौशनी अफ़्ज़ा है अँखियाँ को लगाती जा
तुझ नेह में दिल जल-जल जोगी की लिया सूरत
यक बार उसे मोहन छाती सूँ लगाती जा
तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'वली' दायम
मुश्ताक़ दरस का है टुक दरस दिखाती जा