Last modified on 6 मार्च 2017, at 17:34

मत घबराओ पथिक पंथ पर चले चलो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

मत घबराओ पथिक पंथ पर चले चलो
चलते-चलते ठोकर लग ही जाती है।

कदम उठाने से ही जो डरते हैं वे
क्या जानें पथ की पुकार क्या होती है?
तट तक ही जाने से घबराने वाले
क्या जानें क्या धार सरित की होती है?
तूफानों के बीच नाव खेने वाले
हँसते-हँसते पार लगे देखे मैंने।

यद्यपि ऐसा भी अक्सर हो जाता है
लहरों में ही नौका फँस भी जाती है॥1॥
निराधार पथ पर चलता नभ का राही
केवल अपनी पंखों का विश्वास लिये;
मधुर-मधुर कुछ गाता जाता है बेसुध
अन्तरतम में भावों का आकाश लिये।
धरती का हर तरु उसका स्वागत करता
किन्तु बधिक भी छिपे ओट में रहते हैं।

नोंक विषभरी जिनके तीखे तीरों की
चुपके से पंखों में चुभ ही जाती है॥2॥

माना तुम साधन-विहीन हो, पर उसकी
क्षण-भर भी चिंता न तुम्हें करनी होगी;
है भविष्य का अन्धकारमय पथ तो क्या
मंजिल तो तुमको तय करनी ही होगी।
जला साधना के दीपक में प्राणों की
बाती; साधक स्वयं ज्योति बन जाता है।

हाँ, ऐसा भी प्रायः होते देखा है
जलते-जलते बाती बुझ भी जाती है॥3॥