भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मत जा सहरवा पिया / सिलसिला / रणजीत दुधु
Kavita Kosh से
छोड़ हमरा तों मत जा सहर पियवा,
सभे सुख से भरल हे ई घर पियवा।
घर में हखुन माय बाप भाय भउजाय
एहँय करऽ खेती पोसऽ एगो गाय
थकान मिटतो हमर एक नजर पियवा,
सभे सुख से भरल हे ई घर पियवा।
ऐसन नय मिलतो पानी आउ हावा,
काटतो मच्छर तऽ खाय पड़तो दावा,
वहाँ तेल में मिले हे जहर पियवा,
सभे सुख से भरल हे ई घर पियवा।
राजनीति के अखने होल हका गुंडाकरण
देखऽ बदल गेलो हन अब वातावरण
रुपइया जो कमयवा हो जयतो अपहरण
दुरघटना होवे वहाँ हर पहर पियवा
सभे सुख से भरल हे ई घर पियवा।
पिआर के बोली ले जी तोर तरसतो
हमर इयाद कर-कर अँखिया बरसतो
सुनके उठे देह में लहर पियवा
सभे सुख से भरल हे ई घर पियवा
छोड़ हमरा तों मत जा सहर पियवा।