मत तुम मेरा कोई आधार बनो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मत तुम मेरा कोई आधार बनो।
मैं प्राणी हूँ उस शुष्क मरुस्थल का वासी
जिसका कण-कण प्रति क्षण जलने का अभ्यासी;
लू की लपटें पी-पीकर प्यास बुझाता है
कारवाँ जहाँ फिर भी मुसकाता जाता है।
मत तुम उस मरुथल की जल-धार बनो
मत तुम मेरा कोई आधार बनो॥1॥
मैंने मजहब के ग्रन्थ बहुत से पढ़े नहीं
मन्दिर-मस्जिद की ओर पैर ये बढ़े नहीं;
जोकुछ जीवन के अनुभव में मैंने पाया
वीणा के टूटे तारों में जी-भर गाया।
मत तुम उस वीणा की झंकार बनो।
मत तुम मेरा कोई आधार बनो।2॥
नगरी की इस हलचल से दूर भला हूँ मैं
इसलिये तुम्हारा वैभव छोड़ चला हूँ मैं;
अपने को आप निहार सकूँगा मैं प्रति क्षण
इसलिये मुझे प्यारा मेरा एकाकीपन।
मत तुम मेरा कोई संसार बनो
मत तुम मेरा कोई आधार बनो।3॥
ऊपर से प्रलयंकर वर्षा होती जाये
तूफान भयंकर पीछे से उठता आये;
मँझदार भले ही नाव क्यों न यह फँस जाये
माँझी का बल-अर्चना-याचन थक जाये।
मत तुम उस नौका की पतवार बनो।
मत तुम मेरा कोई आधार बनो।4॥
तन क्या? मिट्टी के क्षणिक कणों का मृदुल ढेर
जीवन क्या? बस कुछ साँसों का ही हेर-फेर;
जब है तन की औ’ जीवन की यह परिभाषा
किस लिये करूँ मैं व्यर्थ किसी से भी आशा?
मत तुम मेरे प्राणों का प्यार बनो।
मत तुम मेरा कोई आधार बनो।5॥