भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मत निहारो कि दरपन पिघल जायेगा / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
काँच को रूप की आँच लग जायगी
मत निहारो कि दरपन पिघल जायगा
कुन्तलों से न सावन बिखेरा करो
यह बहारों का मौसम बदल जायगा
यूँ ही साँसों से साँसें मिलाती रहो
आँख में आँख डाले पिलाती रहो
पालने पर पलक के झुलाती रहो
हुस्न के इस नशे को जिलाती रहो
वर्ना आ जायगा होश बेहोश को
लड़खड़ाता ये आलम सँभल जायगा
स्याह नागिन-सी चोटी का गल-हार है
रस कलश युग्म प्राणों का आधार है
आँजना रेख काजल की बेकार है
यह नजर तो यूँ ही तीर-तलवार है
तिरछे-तिरछे न मुड़-मुड़ के ताका करो
मुँह को आया कलेजा फिसल जायगा
हँस के, रह-रह के यूँ लो न अँगड़ाइयाँ
टूट कर ये सितारे बिखर जायँगे
चाँद को बदलियों से न बाहर करो
इन बहारों के तेवर सँवर जायँगे
ये नियम कायदे सब रहेंगे धरे
दिल ही तो है, किसी दिन मचल जायगा