मत फूलों से / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मत फूलों से स्वागत-सत्कार करो।
इतना मेरा अनुनय स्वीकार करो॥
तुमफूल समझते हो जिनको प्रिय मन में,
उनको ही समझ रहा पथ के बंधन मैं।
इसलिए कि वे पग थाम पथिक का लेते,
औ’ उसकी मजबूरी पर मुसका देते।
मैं इसीलिये कहता हूँ, कभी न इनसे
मेरे वक्षस्थल का शृंगार करो॥1॥
माना कि नहीं ये शूलों-से चुभते हैं,
पर मुझको मेरे शूल भले लगते हैं।
यदि कभी भूल कर भी उन पर पग पड़ते,
तो पथिक नहीं पीछे, आगे ही बढ़ते।
इसलिए चाहता हूँ मेरे पथ को तो
तुम शूल बिछाकर ही तैयार करो॥2॥
जो धार पर्वतों चट्टानों में बहती,
वह धार नहीं इन मैदानों में रहती।
वह वेग और संगीत न उसमें रहता,
हो क्षीण, मंद गति से प्रवाह है बहता।
इसलिए न इन कोमल फूलों से मेरे-
पथ को तुम सेज-सदृश सुकुमार करो॥3॥
मैं हूँ धरती का बेटा, मैंने देखा
धरती की बेटी के जीवन का लेखा।
निज लक्ष्य-सिद्धि के लिए पड़ी थी जिसको
देनी वह अग्नि-परीक्षा, याद न किसको।
मुझको भी अपना लक्ष्य प्राप्त करना है
मेरे पथ पर जलते अंगार धरो॥4॥
19.8.56