मत मंसूबे बाँध बटोही, सफर बड़ा बेढंगा है।
जिससे मदद मांगता है तू, वह ख़ुद ही भिखमंगा है।
ऊपर फर्राटा भरती हैं, मोटर कारें नई - नई,
पुल के नीचे रहता, पूरा कुनबा भूखा नंगा है.
नुक्कड़ के जिस चबूतरे पर, भीख मांगती है चुनिया,
राष्ट्र पर्व पर वहीं फहरता, विजई विश्व तिरंगा है.
कला और तहजीबों वाले, अफसानें, बेमानी हैं ,
शहरों की पहचान, वहां पर होनें वाला दंगा है।
मुजरिम भी सरकारी निकले, पुलिस खैर सरकारी थी,
अन्धा तो फिर भी अच्छा था, अब कानून लफंगा है।
शहर समझता उसके सारे पाप, स्वयं धुल जायेंगे
एक किनारे बहती जमुना, एक किनारे गंगा है.
’अमित’ यहाँ कुछ लोग चाहते, पैदा होना सौ-सौ बार
जहाँ फरिस्ते भी डरते हों, मूर्ख वहां पर चंगा है।