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मत रोको मेरी राह चमन के फूलो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मत रोको मेरी राह चमन के फूलो!

जिसको काँटों पर चलने का अभ्यास हुआ
उसको फूलों पर चलने में क्या कठिनाई?
तुम हो सुन्दर सुकुमार इसी से ही तुमको
कुचला जाना होगी मेरी निर्दयता ही।

मैं इसीलिये पग थाम-थाम कर चलता हूँ
तुमको कितनी ही बार बचाया है मैंने
मत करो मुझे मजबूर आदमी हूँ मैं भी
तुमको कितनी ही बार बताया है मैंने

मत बनो शूल मेरे पथ के, ओ फूलो!
मत रोको मेरी राह चमन के फूलो॥1॥

पर्वती घाटियों की गोदी में उछल-उछल
मेरे जीवन की सरिता बहती जाती है।
जिनके जीवन में है बहाव, उनको पहाड़
भी रोक नहीं पाते, यह कहती जाती है।

चट्टानों का भी हुआ चूर अभिमान-गर्व
वे रोक नहीं पायीं धारा को आज तलक।
फिर मैदानों के इन बाँधों की क्या हस्ती
जो थाम सकें उसके प्रवाह को एक पलक।

मत रोको मेरी धार व्यर्थ ही कूलो!
मत रोको मेरी राह चमन के फूलो॥2॥