भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मत समझिये कि मैं औरत हूँ / कविता किरण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत समझिये कि मैं औरत हूँ, नशा है मुझमें
माँ भी हूँ, बहन भी, बेटी भी, दुआ है मुझमें।

हुस्न है, रंग है, खुशबू है, अदा है मुझमे
मैं मुहब्बत हूँ, इबादत हूँ, वफ़ा है मुझमें।

कितनी आसानी से कहते हो कि क्या है मुझमें
ज़ब्त है, सब्र-सदाक़त है, अना है मुझमें।

मैं फ़क़त जिस्म नहीं हूँ कि फ़ना हो जाऊं
आग है , पानी है, मिटटी है, हवा है मुझमें।

इक ये दुनिया जो मुहब्बत में बिछी जाये है
एक वो शख्स जो मुझसे ही खफा है मुझमें।

अपनी नज़रों में ही क़द आज बढ़ा है अपने
जाने कैसा ये बदल आज हुआ है मुझमें।

दुश्मनों में भी मेरा ज़िक्र ‘किरण’ है अक्सर
बात कोई तो ज़माने से जुदा है मुझमें।