मदालसा / विमल राजस्थानी
‘हे भगवान!पाप यह किसका मेरे गले पड़ा है!‘
झुँझलायी-सी है मदालसा, मन उखड़ा-उखड़ा है
थी मैं चिन्ता-मुक्त, व्यर्थ का यह कुभार ढ़ोऊँगी
सहज हृदय की शान्ति, श्क्ति, सुख-चैन व्यर्थ खोऊँगी
किन्तु अटल आदेश नृपति का सिर-माथे धरना है
सुख से हो या दुख से, यह कर्तव्य पूर्ण करना है‘
झटपट कर श्रृंगार, चल पड़ी चिन्ता-युत, मन मारे
‘चलूँ बहाने इसी टेक लूँगी माथा प्रभं-द्वारे‘
हटो‘हटो, दो पंथ,भीड़में महारोर छाया है
राज-नर्तकी मदालसा का रथ असमय आया है
उतरी रथ से मदालसा, पीछे प्रधान दासी है
छिटक रही है रूप ज्योत्सना ज्यों पूरणमासी है
चाल मदभर, हाव हठीले, भाव मंदिर मदमाते
सावधान मुद्रा, प्रशान्त सब, उसके आते-आते
था यौवन उतार पर, कौशल में कसाव भारी था
तीस वसन्त झेलने पर भी रूप मनोहारी था
किन्तु, थक चुकी थी अभिलाषा कीर्ति-भार को ढ़ोते
मन के तार मृदंग-थाप को अब थे नहीं पिरोते
धीरे-धीरे हृदय धरा पर प्रभु-पद चाप ध्वनित थी
साँसो में अधिकांश देव चरणो पर बिछी, प्रणत थी
पूजा-भाव प्रगााढ़, देव दर्शन की उत्सुकता है
देव-देहरी पर आते ही प्रथम शीश झुकता है
ज्योहीं शीश उठा कि पार्श्व में चंद्र-किरण-सी चमकी
देखा-लिपटी पड़ी, चाँदनी पत्तो में, पूनम की
उत्सुकता का पुंज, प्रभा-मंडल की द्युति भाती है
दायें पग का चूस अँगूठा, कन्या मुस्काती है
मदालसा यह चकाचौंध, यह रूप निरख कर छक है
यह असीम सौन्दर्य! अहा रे! गिरती नहीं पलक है
शिशु में यह लावण्य ! तरूण वसय में त्रिलो डोलेगा
रूप सिन्धु का गर्जन, नभ के श्रुति-पट तक बोलेगा
बहुत ललक कर, बड़े यत्न से, शिशु को अंक लगाया
कभी-कभी प्रभु -इच्छा से अनहोनी हो जाती है
नियति सुलगती हुई रेत में कानन बो जाती है
लौटी महलों में मदालसा, सँग नृप की थाती है
भींग गयी कंचुकी, दुग्ध की धार बही आती है
मदालसा का नहीं कभी मातृत्व-बोध था जागा
सोचो-जो जन वंचित शिशु-सुख से, बहुत अभागा
अहा! वक्ष से लगा असीमित पुष्कल सुख मिलता है
सह गुदगुद आनंद, प्राण का कमल सहज खिलता है
तभी अचानक बात तड़ित-सी कौंध गयी यह मन में
‘अवहेलना हुई है मुझसे आज देव-पूजन में
नहीं देव-चरणो पर मैं फल-फूल चढ़ा कुछ पायी
नहीं अन्य-दिवसोंकी भाँति भजन-स्तुतियाँ गायीं
किन्तु, देव-पूजा क्या नही हुई सुफलित है मेरी ?
धन्य हुईहै क्या न प्राप्त कर शिशु यह प्रभु की चेरी ?
यह पावन प्रसाद ईश्वर का, सूनी कोख फली है
स्वर्ण-दीप की रजत-वर्तिका असमय आज जली है
पूजन-वंदन नहीं देखने प्रभु भावो के भुखे
छप्पन भोगो को झुठलाने तन्दुल रूखे-सुखे
यह प्रभु का वरदान सुकन्या बिन प्रयास पायी है
लगता है समग्र उडुगण की छटा सिमट आयी है
सच है! बिना बिचारे जो कुछ सोच-समझ लेते हैं
पछताते हैं और स्वयम् को धोखा ही देते हैं
मैं कितनी उद्विग्न, कुचिंतरओ से भरी-भरी थी
बेबस थी, नृप की बंकिम भृकुटी से डरी-डरी थी
नगरवधू थी, नहीं भाग्य में मेरा माँ बनना था
क्या होता मातृत्व, जान पाना अलभ्य सपना था
नहीं मुझे स्मरण, कौन थी, आयी यहाँ कहाँ से
परिचय मात्र नृत्य से केवल, परिचय मात्र सुरा से
नहीं स्वजन, राज्यश्रय ही बस, मात्र एक सम्बल है
अपनी एक सुनयना की माँ, अपना यमुना-जल है
क्या होती संतान नहीं सपने में भी जाना था
नृत्य, वाद्य, संगीत इन्हे ही बस, सरबस माना था
इच्छा भी थी नहीं मोह-माया का जाल बुनूँ मैं
जाऊँ छली काल के हाथो, सिहरूँ, शीश धुनूँ मैं
राजा का आदेश, दुखी मन से मैं वहाँ गयी थी
मेरे लिए नृपति की आज्ञा वेधक, निपट नयी थी
क्या-क्या उठे भाव हृदय में कितना क्षोभ भरा था
देव-देहरी तक मेरा मन कितना मरा-मरा था
किन्तु, नियति के हाथो मेरी कोख भर गयी ऐसे
घटाटोप को चीर पूर्ण चंद्रोदय दमके जैसे‘
मन ही मन न्यायी राजा के चरणो में सिर नत है
बारंबार नर्जकी नृप-चरणो पर झुकी, प्रणत हैं
परम तृप्ति का बोध, उमंगो का अथाह सागर है
दिन दूनी औ‘ रात चौगनी होती कांति प्रखर है
शुभ मुहूर्त, उल्लास असीमित, यझ-धूम्र छाया है
नामकरण का यह मंगल अवसर सुखमय आया है
वीणा-पूजन हुआ, घुघँरूओ पर अक्षत-रोली है
वासवदत्ता मदालसा की बेटी मुँह बोली
सा‘साधा -रे‘ रमा, गमक -ग‘ की मनहर है
मदिरीला ‘म‘, पुलकाकुल ‘प‘ अति सुन्दर है
‘ध‘ की धुन प्यारी-न्यारी, ‘नी‘ नित नूतन है
‘सरगम‘-बोल सुहाने, विस्मित-मुग्ध भुवन है
दूज के विाु-सी निरंतर बढ़ रही है रूप-बाला
फैलता ही जा रहा , सौन्दर्य का, दप-दप उजाला
बन गया यह रूप चर्चा का विषय सारे भुवन का
कांति से भर दे भुवन आलोक ज्यो उल्का-किरण का
नृत्य की, संगीत की सारी विधाएँ रम गयीं जब
यह उफनता रूप देख लख कर सृष्टि सारी थम गसी ज
रोर गूँजा- ले रही सन्यास सुमुखि मदालसा है
मात्र उसके स्थान पर टिक रूप वासव का हँसा हक्
दूसरा है कौन जो पद-भार गुरू उसका सँभाले
यह विजय-ध्वज रूप का जो सप्त लोको तक उछाले
नर्तकी, नृप ने, सुधोषित, राज्य की, उसको दिया कर
योग्य निर्णय-अमृत ने आकंठ जन-जन को किया तर
रूप ज्वाला की लटें छुने लगीं चारो दिशएँ
ले उड़ी संदेश नुपूर का मलयवाही हवाएँ
ख्याति से त्रैलोक्य गुँजा, भेरियाँ यश की बजी हैं
इस कला के कल्प-तरू से स्वर्ग-सी मथुरा सजी है
नाम वासव का प्रतिक्षण सभी के जिहृाग्र पर है
दमकता विधुत-छटा तेज वासव का प्रखर है
बीन झंकृत, मेघ-पंखो पर मधुर स्वर डोलते हैं
स्वर्ण-नुपूर बज सहस्त्रों जयति जय-जय बोलते है