मधुपुर प्रस्थान / अमरेन्द्र
बैठ चले रथ पे मनमोहन आँसू भरे दृग हैं चमकीले
भीग गए पट हैं उनके बहते असुवाँ सब अंग सजीले
केशव के सब भीग गए रुकते टुक ना पल नैन हठीले
घायल डूब गये सब ही द्रुुम, भूमि, लता, रवि रक्तिम पीले।
नन्द यशोमति भूमि पड़े और नैन-सरोवर नीर भरे
उष्ण उसाँस उठे उनके अविराम सुनैन से नीर ढरे
घायल हो तड़पे; जस व्याल बिना मणि के, मणि से बिसरे
छोड़ ना जा सुत, छोड़ ना जा सुत, वैन यहीं मुख से उबरे ।
ग्वालिन, राधा मलीन बनीं पकड़े रथ को विलखे रथ आगे
कम्पित हैं पग, आँसू झरे, सुधिहीन बने सग बाबरी लागे
भाल धुने कुछ, पाहन-सा अवलोक रहीं, कुछ कुञ्ज को भागे
ठाड़े गिरे ब्रज घायल हो, गिरते कर-कंगन, भूषण त्यागे ।
कौन कसूर किया हमने तुम छोड़ चले ब्रजबाला सभी को
निष्ठुर-सा मुँह मोड़ चले कुछ लाज ना आये शिला सम पी को
घायल पाखी बचे न बचे, ठुकरा न जला हिय शोकिल-धी को
प्राण पिया बिन कैसे रखूँ , न पसार लगे हमको क्षण नीको ।
निष्ठुर नन्दलला निज नीड़ न छोड़ कहीं परदेश सिधारो
भूल यशोमति, नन्द, सखा-सुख-गागर में मत ठोकर मारो
घायल हो सब भूमि पड़े मृत के मुँह से तुम आओ उबारो
छोड़ न जा घन, छोड़ न जा घन, छोड़ न जा घन, तू हठ टारो।
ग्वालिन आँसू झरे इतने कितने ही सने जल से, जलराशि
आँसू-नदी बहती अवलोक के क्या पशु व्याकुल हैं ब्रजवासी
क्या यह क्रोध पुरन्दर का अथवा शिवशंकर जो पति काशी
आँसू न घायल, सागर ही उमड़े करने ब्रज-नाश-निवासी ।
सिंह, मृगा, पशु वृन्द सभी ब्रज को तज जंगल ओर सिधारे
शावक संग चले उनके, मृग-शावक माँ संग-साथ सहारे
घायल धेनु करे रव धावतीं आँसू की धार से कौन उबारे
कुंजर नाद करे उमते, गजगामिनी के इन आँसू के मारे ।
सावन मास बसे ब्रज में जल ही जल भीषण बाढ़ बढ़ी है
साँस बने घन ग्वालिन के और बादल का रव; रो जो रही है
ग्वालिन के तन दामिनी ज्यों सित साँस घटा, कुछ और नहीं है
पावस के दिन जान शिखी वन नृत्य करे पिक, प्रीति चढ़ी है।
बोल उठी चिड़िया टि वि टुट टुट, सोच के ये बदली उपटी है
दादुर, झिंगुर, बोल उठे दुख-शोक कटे, धुनि गूंज उठी है
चातक शोर करे वन में बरसो घन रे अब प्यास घटी है
पावस के बस जान वृन्दावन मोर मयूर-धुनि प्रकटी है ।
दृग नीर भरे, हिय पीर सने, सब बोल उठे मनमोहन से
मुॅह मोड़ चले तुम गोकुलनाथ, निरीह बने वृन्दावन से
अति घायल नंद-यशोमति हैं, बिछड़ो न अहो इन ग्वालन से
मतिहीन बनी, गतिहीन बनी, सुधिहीन बनी अपने तन से ।
प्राण उद्धारक नाथ अनाथ के साँच कहूँ विनती यह मेरी
हो रथहीन ! मलीन बनी सब घायल, काल बना है अहेरी
नैैन-सरोज, सुधा रस बैन ! घटा घनघोर है, रात अंधेरी
साध तजो ! बरजो मथुरा ! न जरा बिसरा, जड़ गोपिन तेरी ।
रथ से उतरे दृग नीर भरे रवहीन बने हिचकी उभरे
कर को कर ले कर चूम लिये दृग बंद हुये, इक बून्द गिरे
फिर लौट पड़े पग कम्पित से अपने रथसूत के अंग धरे
दुख भार भरे हो अचेत गिरे, कपसे-विलखे दृग नीर ढरे ।
रथ सारथी हाँक चला रथ को पर दंग कुरंग न आगे बढ़े
कुछ तंग बने पशु संग न दे, जो तरंग-व्यथा मन में उमड़े
मुढ़ वाजि रहे अवलोक उन्हें जो हैं शोक से घायल भूमि पड़े
रह शोक रचे रत रोदन से सब नैेन-तुनीर से तीर झड़े ।
पुचकार अपार बेकार हुई सब, देह छिली तब चाबुक से
हय घायल दौड़ चले पथ पे मन-पीर कुरंग कहे किससे
अवलोक रहे विधु ग्वालिन को वह मौन ही मौन जले रिस से
दृग नीर सने, हो अधीर बहे रज कीच बने पथ के जिससे ।