मधुशाला / भाग 13 / हरिवंशराय बच्चन / अमरेन्द्र
क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल
नर तेॅ मिट्टी रोॅ प्याला,
भरलोॅ होलोॅ जेकरोॅ भीतर
कटु-मधु जिनगी रोॅ हाला,
साकी निठुर बनी मिरतू छै
फैलैलेॅ सौ हाथोॅ केॅ !
काल प्रबल तेॅ पीयैवाला
दुनियाँ छेकै मधुशाला ।73
हमरा प्याले-रं गढ़ी कोय्यों
ढारलकै जीवन-हाला,
नशां सुहैलै नै, ढारलियै
लै, लै केॅ मधु रोॅ प्याला;
जखनी उपटै जिनगी रोॅ दुख
रहौं दबैले प्याला सें;
दुनियाँ रोॅ पहिलोॅ साकी सें
भिड़लोॅ होलोॅ मधुशाला ।74
अंगूरोॅ रोॅ अपनोॅ तन में
हम्में भरलेॅ छी हाला,
बोलै शेख ‘नरक में हमरा
खूब तपैतै ही ज्वाला’,
तब तेॅ मदिरा खूब खिंचैतै
आरो पीतै भी कोय्यो,
हमरा नरकोॅ के ज्वाला में
साफ दिखैतै मधुशाला ।75
लै लेॅ ऐतैं जम्मेॅ जखनी
चलबै टानी केॅ हाला,
नरकोॅ के पीड़ा, कष्टोॅ केॅ
की बुझतै ई मतवाला,
पत्थर दिल, कुविचारी, कुटिलो
अतिचारी जमराजोॅ के,
जखनी पड़तै मार डाँग के
करतै आड़ोॅ मधुशाला ।76
जों ई ठोरोॅ सें दू बाते
प्रेमोॅ के बोलै हाला,
जों खलिया हाथोॅ के जी केॅ
बहलाबै पल भर प्याला,
जग रोॅ यैमें हानि कहाँ छै
की लेॅ हमरा बदनामौ;
हमरोॅ टुटलोॅ दिल के छेकै
एक खिलौना मधुशाला ।77
सुध नै आवेॅ दुखमय जिनगी
यैलेॅ पीबी लौं हाला,
चिन्तामुक्त रहै लेॅ ही जग
थामी लै छै ई प्याला,
शौक, समादोॅ, इच्छौ खातिर
दुनियां पीयै छै मदिरा;
पर हम्में ऊ रोगी जेकरोॅ
एक दवा छै मधुशाला ।78