मधुशाला / भाग 14 / हरिवंशराय बच्चन / अमरेन्द्र
रोज-रोज गिरले ही जाय छै
प्रणयिनि, प्राणोॅ रोॅ हाला,
रोजे-रोज भाúले जाय छै
सुभगी, हमरोॅ तन-प्याला,
रुपसि, रूठै छै हमरा सें
रोज जवानी रोॅ साकी,
रोज-रोज सूखै छै, सुनरी
हमरोॅ जीवन मधुशाला ।78
जम ऐतै जे साकी बनलेॅ
साथें लै करिया हाला,
पीबी नै होशोॅ में ऐतै
मधु सें बेसुध मतवाला,
ई अन्तिम बेहोसी, अन्तिम
साकी, अन्तिम प्यालाहौ;
राही पीयोॅ प्यार सें एकरा
कहाँ फनू ई मधुशाला ।79
ढलकी रहलोॅ तन रोॅ घट सें
जबकि छै जीवन-हाला,
गरलपात्रा केॅ लै केॅ जबकि
साकी छै आबैवाला,
प्याला पकड़ै के सुख गेलै
सुरा-स्वाद भुललै जीहो,
कानोॅ में कहतेॅ रहियोॅ तोंय
मधुकण, प्याला, मधुशाला ।81
हमरोॅ ठोरोॅ पर अन्तिम में
तुलसी-दल नै, बस प्याला,
हमरोॅ जीहा पर अन्तिम में
गंगा जल नै, बस हाला,
हमरोॅ ठठरी संग चलवैया
याद यही रखियोॅ अतनैµ
‘राम नाम सत’ केरोॅ बदला
कहियोॅ ‘सच्चा मधुशाला’ ।82
हमरोॅ ‘ठठरी’ पर ऊ कानै
जेकरोॅ लोरोॅ में हाला,
आह भरेॅ ऊ जे छै सुरभित
मदिरा पीबी मतवाला,
वैं ही कंधा दौ जेकरोॅ कि
गोड़ निशांव सें डगमग-डग,
जलौं वही ठां जैठां कहियो
रहलोॅ छेलै मधुशाला ।83
आरो सारा पर उलटैयोॅ
घी-बरतन बदला प्याला,
घंट बँधेॅ अंगूरलता में
नीरोॅ के नै, दै हाला,
प्राणप्रिय, जों श्राद्ध करोॅ तोंय
हमरोॅ, तेॅ हेनोॅ करियोॅ.
पीयैवाला केॅ बुलवाय केॅ
खुलबैयोॅ तोंय मधुशाला ।84