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मधु-मत् / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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नया रस भव में सरसाया;
छलककर छिति-तल में छाया।
सरस होकर रसाल बौरे,
बनी किंशुकता मतवाली;
लाल फूलों में विलसित हुई
मत करनेवाली लाली।
लता-दल पुलकित दिखलाया।
फूल हैं मुँह खोले हँसते,
विकसिती जाती हैं कलियाँ;
धारा को मादकता से भर
मना हैं रहे रंगरलियाँ।
देख कुसुमायुध ललचाया।
झूमते-झुकते हैं भौंरे,
घूमते हैं मतवाले बन;
गूँजते हैं नव मधु पीकर,
चूमते हैं कुसुमों का तन।
संग भ्रमरी का है भाया।
कूकता है निशि-दिन कोकिल,
दिशा है कलित काकलीमय;
समद है मंद-मंद बहता
मलय-मारुत बन मोद-निलय।
परिमलित कर मंजुल काया।
तरंगें उठीं अखिल उर में
पिए रस आसव का प्याला;
क्यों न हो अनुरंजित मानस,
बन उमग तरु मधु मय थाला।
है सरस समय रंग लाया।