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मध्यवर्गीय होना गाली नहीं है / शरद कोकास
Kavita Kosh से
तकिये के ग़िलाफों पर
रंगीन धागों से कढ़े
"गुडनाइट" और "स्वीटड्रीम्स"
सार्थकता की दहलीज़ पर
दम तोड़ देते हैं
चूल्हे से निकलता धुआँ
अपनी कालिख से
अभावों की व्याख्या लिखता है
दस बाई दस के कमरे में
दिमाग़ बन जाता है बैठक
दिल शयन कक्ष
और पेट रसोईघर
अभावों के रेगिस्तान में
हरे-भरे इलाकों की तरह
पाई जाने वाली सुविधाएँ
वर्ग परिवर्तन की घोषणा नहीं करती
घर के किसी कोने में छुपाते हुए
बेटे द्वारा लाये पोस्टर व बैनर
वह सुनती है
किसी दलित आन्दोलन के बारे में
बेटे से होने वाली बहस के बीच
अक्सर विचारों में फहराती है
रक्त में डूबी पति की लाश
अब उसे बुरा नहीं लगता
वह जानती है
ज़रूरतें बटोरने के दौर में
यह गाली नहीं है।