भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मध्यवर्ग / उज्ज्वल भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़तरे की भनक मिलते ही
मैं रेंगने लगता हूँ
पीछे की ओर —
सरकती जाते हैं
मेरे चूतड़
धीरे-धीरे,
जगह बनाते हैं
सूराख़ के अन्दर ।
 
अब मैं आश्वस्त हूँ —
सिर घुमाकर देखता हूँ
खुले आसमान से
आते, न-आते ख़तरों को ।

चीख़-चिल्लाकर
मैं अपनी भड़ास निकाल सकता हूँ ।

ज़रूरत पड़ने पर
मेरे चूतड़
मुझे खींच ले जाएँगे
सूराख़ के अन्दर ।