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मध्य निशा का गीत / नरेन्द्र शर्मा

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तुम उसे उर से लगा स्वर साधतीं--
उठते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!
मूक होती कथा मेरी,
शून्य होती व्यथा मेरी,
चीर निशि-निस्तब्धता जो,
तीर-से आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!
चाँद भी पिछले पहर का,
मुग्ध हो जाता, ठहराता!
क्या विदा-बेला न टलती
यदि कहीं आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?
बनी रहती चाँदनी भी
गगन की हीरक-कनी भी
ओस बन आती अवनि पर
चाँदनी, सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?
रुद्ध प्राणों को रुलाते,
आज बाहर खींच लाते
निमिष में अंगार उर-सा
सूर्य, यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?