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मन! तू गोविन्द-गोविन्द गा रे / स्वामी सनातनदेव

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राग विहागरो, तीन ताल 19.8.1974

मन! तू गोविंद-गोविंद गा रे!
गोविंद बिनु है कोउ न अपनो-यह जनि कबहुँ भला रे!
दुरलभ नर-तनु मिल्यौ, याहि तू विषयन में न गँवा रे!
भोग-रोग तो फिर-फिर मिलिहैं, उनमें तू न भ्रमा रे!॥1॥
सपनो वा मृगजल सो है जग, यामें चित्त न ला रे!
साँचो है केवल गोविंद ही, ताकी प्रीति जगा रे!॥2॥
जो कछु मिल्यौ मिल्यौ गोविंद सों, तसों नेह लगा रे!
जो दीखत सो भासमात्र है, तामें तू न ठगा रे!॥3॥
गोविंद की ही हैसब लीला, गोविंद के गुन गा रे!
गोविंद को अपना के बस तू गोविंद को ह्वै जा रे!॥4॥
यों गोविंद कों पाय अरे! तू सब ही कों पा जा रे!
फिर अब अरु निज में गोविंद लखि गोविंद ही ह्वै जा रे!॥5॥