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मन! तू मन मोहन में लाग रे! / स्वामी सनातनदेव
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ध्वनि व्रज के लोकगीत, कहरवा 28.6.1974
मन! तू मनमोहन में लाग रे!
त्यागि जगत की ईति-भीति सब कर हरिहीसे अनुराग रे!
केवल हरि ही है बस अपना।
और सभी है कोरा सपना।
उसमें लगना वृथा भटकना।
तू तज कर सबका मोह-द्रोह बस हरि-रति रसमें पाग रे!॥1॥
हरि का तू है अरु सब हरि के।
इस नाते सबका मन रख के।
सब ही के हितमें नित लग के।
सब की सेवा कर-कर भी तू रख कहीं न कुछ भी राग रे!॥2॥
प्रभु पद ही हैं अपने निज धन।
अपित हों उनही में तन-मन।
उनही का निशि-दिन हो चिन्तन।
प्रभु-पद रति ही सम्पति तेरी, तू सन्तत उसमें जाग रे!॥3॥
हरि-रति को ही यह तन पाया।
अब तक इसको वृथा गँवाया।
अब तू छोड़, छोड़ यह माया।
सब से मुख को मोड़ एक बस, कर प्रीतम ही से राग रे!॥4॥
शब्दार्थ
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