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मन! तू माधव को ह्वै रह रे! / स्वामी सनातनदेव

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राग देश, तीन ताल 1.8.1974

मन! तू माधव को ह्वै रह रे!
ऊँच-नीच जो आवै मन में सो सब सुखसों सह रे!
सब ही हैं प्रसाद प्रीतम के, जो आवें सो सह रे!
अपनो सब मनमोहन को है, उनसों कछू न चह रे!॥1॥
वे तेरे निजहूँ के निज हैं, उनहीकों नित चह रे!
उनकी रति ही है गति तेरी, ताही में रत रह रे!॥2॥
विषय-व्याधि सों बच चलि बन्दे! ताके फंद न गह रे!
सबमें सदा असंग भाव रखि संग स्याम के रह रे!॥3॥
नामानल को सेवन करि तू अपने मल सब दह रे!
निर्मल ह्वै निर्मल प्रीतम की निर्मल रति ही लह रे!॥4॥
है जीवन को यही परम फल, और न कछु फल चह रे!
प्रीतम की रति में नित रत रह और सभी रति जह<ref>त्याग</ref> रे!॥5॥

शब्दार्थ
<references/>