मनई / पढ़ीस
तन-मन का पूर-पूर पुतरा
बसि, बहयि आयि सुन्दर मनई!
बाह्यय, भीतर ऊपर, खाले मा
बहयि आयि सुन्दर मनई।
जो जानयि कयिसे जलसु लिह्यन,
अब का करबयि फिरि कहाँ जाब।
जो द्याखयि ‘हम’ ‘तुम’ को आहीं,
बसि, बहयि आयि सुन्दर मनई।
द्वसरे के दुख ते दुखी होयि,
अपनउ सुखु सबका बाँटि देयि,
जो जानयि सुख-दुख के किरला,
बसि, बहयि आयि सुन्दर मनई।
अउरन की बिटिया - महतारी,
जो अपनिन ते अधकी<ref>अधिक, ज्यादा</ref> मानयि;
जग के सब लरिका अपनयि अस,
बसि वहयि आयि सुन्दर मनई।
आँखिन माँ करूना छलकि रहयि,
च्यहरा पर दाया झलकि रहयि,
मर्दुमी बाँहँ पर फरकि रहयि,
बसि, बहयि आयि सुन्दर मनई।
जो बिगहा भर भुइँ माँ स्वावयि,
अउरन का कचरि-कचरि कलहयि<ref>कलह करना, कराहना</ref>
वुहु काम-देव का परप्वातयि,
मुलु कहाँ, कयिस, सुन्दर मनई।
जो दुखियन देखे खारू खायि,
सुख वाल्यन ते खीसयि काढ़यि,
वुहु भलइ सिकन्दर का प्वाता,
मुलु कहाँ रहा सुन्दर मनई।
जो अपनयि मा बूड़ा बाढ़ा,
संसारू सयिंति कयि सोंकि लिहिसि,
वुहु राकस हयि, वुहु दानव हयि!
अब, कउनु कही सुन्दर मनई!
जो सब धरमन<ref>धर्म</ref> का धारे हयि,
सब मा मिलि एकु रूपु द्याखयि,
वुहु क्यसन, महम्मद, ईसा, बुद्धा,
वहयि आयि सुन्दर मनई।