मनकी खिड़की से झाँक-झाँक / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
मनकी खिड़की से झाँक-झाँक
अन्तर में कौन सिसकता है
स्मृति-पथ पर से मन्थर गति में
धीरे वह कौन खिसकत है
कहता हूँ दो क्षण रूक जाओ
तुम मन की व्यथा न बतलाना
मेरी ही राम कहानी सुन
मेरे अन्तर को सहलाना
मेरा परिचय मिल जायेगा
मैं भी मन हल्का कर लूँगा
यदि अमिय मिले तो तुम लेना,
मै? मैं तो सिर्फ जहर लूँगा
मैं प्यासा हूँ तो रहने दो
मन की अभिलाषा कहने दो
रोको न मुझे करूणा की धारा
में इच्छा भर बहने दो
क्रन्दन सुन पड़ता जहाँ, वहीं
होता था मधुमय गीत कभी
रोता है वर्त्तमान, लेकिन
हँसता था वहीं अतीत कभी
लेकिन इन दोनों को छोड़ो
अब हमें भविष्य बनाना है
रोते हँसते हिलमिल करके
जीवन को पार लगाना है
करता है कोई अट्टहास
गर्जन सुनकर घबराना मत
उसका प्रलयंकर रूप देखकर
पग पीछे कभी हटाना मत
जीवन है मिला उछलने को
जीवन है मिला मचलने को
जीवन है मिला विवेको को
दुनिया का रंग बदलने को
बस वही विवेक हृदयतल में
सद्गुण का अंकुर बोता है
अवगुण का अंकुर देख मगर
अन्तर में चुपके रोता है