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मनचाही शाम एक दे दो ! / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे
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अनचाहा जीवन ये ले लो रे नाथ !
और मुझे मनचाही शाम एक दे दो
कि कब से मृगजल में तरसे है नाव ।
झरे हुए पत्ते को हाथ में लिए
मैंने आँखों में रोपा एक झाड़
पँछी का लाड़ कभी देखा नहीं
और नभ में झरोखा कभी सुना नहीं
जमे हुए पानी में सोई इस मछली को
अर्जुन का मत्सयवेध दे दे ।
मुझे दे दो एक शाम, मुझे दे दो एक रात
मुझे दे दो एक आश्लेष
कि बिखर-बिखर जाएँ, सात-सात जन्मों से
कसकर बान्धे ये केश !
मुझे मुझसे पूरा अलगकर नाथ
आजीवन क़ैद एक दे दो ।
मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे