मनमोहन और सिद्ध / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
रमता फिरता गृह गृह मांही।
एक दिवस आरन वन माहां। वसती नगर निकट नहिं तांहा॥
रजनी कियो तहां विश्रामू। सिद्ध पुरुष एक रह तेहि ठामू॥
ताहि सिद्धकर दर्शन कियऊ। पुरविल प्रेम प्रगट तंह भयऊ॥
वहुत मिलाप परस्पर ठाना। मधुर वचन कह कुंअर सुनाना॥
विश्राम:-
कर जोरे विनती करो, जिय लीजै प्रभु मानि।
हम आये इत हवै अतिथि, करहु कृपा जन जानि॥92॥
चौपाई:-
बोलहिं साधु सनो हो भाई। हमपे अहै कवन अधिकाई॥
जेहि कारन तुम गोचर लावहु। करहु अनुग्रह व कति सुनावहु॥
स्वामि: सुनहु विनती एक मोरी। कहेउ कुंअर दूनो कर जोरी॥
दीक्षा भिक्षा नित अभ्यागत। ताकि आये तुम्हरे शरनागत॥
रामका नाम कृपा मोहि करिये। जेहिते भवसागर निस्तरिये॥
सुनि के सिध मनमोह विचारा॥ परउपकार न लाइय वारा॥
तादिन सबकर किहु सनमाना। कृपा करी पुनि होत विहाना॥
विश्राम:-
महापुरुष परबोधेऊ, कुंअर आदि जन कोय।
दया दीन पर कीजिये, मन वांछित फल होय॥93॥
चौपाई:-
माला तिलक सबहिं पहिराये। हृदया हरि को भगति दृढाये॥
दिन दस राजकुंअर तंह रहेऊ। गुरु की सेवा निशि दिन कयऊ॥
आपन अरथ कहो विलछानी। जेहि कारन मैना विलगानी॥
वहुरि कुंअर अस विनती लाई। मोहि अस आयसु करहु गोसाई॥
भयउं कृतारथ पूज्यो कामा। करे उदेश चले तुव नामा॥
सिद्ध कुंअर कंह लीन लिवाई। गुरु शिष वेठु निरन्तर जाई॥
विश्राम:-
वस्तु एक अपूरब, आनि कुंअर कंह दीन।
उपजु दा अमिअंतर, तब गुन कहबे लीन॥94॥