मनमोहन से भेंट / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
नाम जपत सब भो भिनुसारा। वहुरि चलन चित पंखि विचारा।।
क्षुधावंत मैना अकुलानी। खार उदधि जल पियउ न पानी।।
पुनि पुनि सुमिरों नाम गोसाँई। मैं बलहीन न और सुहाई।।
के प्रभु पार किनार लगावहु। के यदि सागरमध्य समावहु।।
राजकुमार धरे मम आसा। प्राणमती पकरे विश्वासा।।
विश्राम:-
प्राण संकल्प्यो प्रेम पथ, परमारथ जिय जान।
साहस कीन्हयो स्वामिविनु, धरनी गति नहि आन।।46।।
चौपाई:-
मन वच क्रम जानों भगवाना। यहि को नहि अवलम्बन आना।।
जो प्रभु चाहे करतनवारा। पर्वतते तृण तृणहि पहारा।।
तब कृपाल निज कृपा जनाई। एक लहर सागरते आई।।
वृक्ष सहित मैना ले जाई। वाहर डारि लहरि फिरि आई।।
मैनहि पार कियो रघुनाथा। सुमिरि सुमिरि मुंह नायउमाथा।।
विश्राम:-
धरनीश्वर प्रभु धन्य तुम, ठाकुर अपरंपार।
धरनी जन शरनागती, मन वच कर्म अधार।।47।।
चौपाई:-
दीन जानि प्रभु भयउ सहाई। चलि मैना हरि को शिरनाई।।
दिवस कतेको पंथहिं मयऊ। मैना पंचवटी चलि गयऊ।।
मन मोहन जहं करु अस्नाना। सुभग सरोवर के सनिधाना।।
यदि अंतर मैना चलि आई। राम नाम मुख टेरि सुनाई।।
सुनतहि शब्द श्रवन सुख पावा। मनमोहन ले कंठ लगावा।।
विश्राम:-
जैसे गहे भुजंग मणि, तजे न वरु जिय जाय।
ज्यों बालक निज वनचरी, राखे हृदय लगाय।।48।।
चौपाई:-
कुंअर कुशल पूछयो बहुमोती। कहु मैना तव दर्शन शांती।।
पुनि कह कुंअर कहो कुशलाई।परम कुशल तव दर्शन पाई।।
वार वार आनन्द पुछारी। करहिं परस्पर मन मनुहारी।।
भरि भरि नयन दुहू जलढारा। प्रेम प्रवाह चलो जलधारा।।
पुनि दूनहुँ तन तपन बुझाई। क्षुधित आत्मा वहुत बुझाई।।
विश्राम:-
घरि चारि जो पूछते। कहत कुशल ओ क्षेम।
देखि मगन मनमे धरनि वरनि न आवत प्रेम।।49।।
चौपाई:-
पुनि सरवर ते चल्यो कुमारा। कर ऊपर मैना वंठारा।।
मनमोहन निज महल सिधारा। मैना सहित निरंतर सारा।।
द्वारपाल से कहा बुझाई। यहां न कोई आवें भाई।।
बोेले कुँअर सुनो मम हीता। केहि प्रकार इतना दिन बीता।।
जेहि केखोज गये कहि मोही। सोंधों रतन मिला जगतोहीं।।
विश्राम:-
मग को सब विरतंत कहु, दिन वीते जेहि भांति।
तब सुन्दरि व्यवहार कहु, मो जिय होवे शांति।।50।।