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मनुज-जीवन / महेन्द्र भटनागर

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क्या यही है मनुज-जीवन ?

मन दुखी है इसलिए तुम
मौन-स्वर में रो रहे हो,
हो रहे बेचैन इतने
आश सारी खो रहे हो,
पर, कभी मिलता सरस सुख, हँस लिया करते उसी क्षण !

हाथ अपने यदि चलाते
तो चलाते बंधनों में,
है नहीं तेज़ी तनिक भी
अब मनुज-उर-धड़कनों में
सत्य, शिव, सुन्दर कहाँ ? जीवन लिए है घोर उलझन !

कर न सकता न्याय कोई
स्वार्थ में जकड़ा हुआ जग,
बढ़ रहीं अगणित व्यथाएँ,
है मधुर जीवन न प्रतिपग,
हो गया है आदमी का आज तो पाषाण का मन !
1946