भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मनुज उम्मीद की कलियाँ खिलाना भूल जाता है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
मनुज उम्मीद की कलियाँ खिलाना भूल जाता है।
दिखे जो सामने मंज़र सुहाना भूल जाता है॥
बहुत-सी मुश्किलें हैं ज़िन्दगी आसान कब होती
फँसा इनमें मनुज हँसना हँसाना भूल जाता है॥
हजारों बार खुद से ही किया करता कई वादे
मगर जब वक्त आता है निभाना भूल जाता है॥
बहुत आसान होता स्वार्थ की धारा में बह जाना
सदा सदपंथ पर ही पग बढ़ाना भूल जाता है॥
वतन के प्यार में जीना वतन के प्यार में मरना
वतन के वास्ते खुद को मिटाना भूल जाता है॥