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मनुष्यता का दुःख / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
पहली बार नहीं देखा था इसे बुद्ध ने
इसकी कथा अनन्त है
कोई नहीं कह सका इसे पूरी तरह
कोई नहीं लिख सका संपूर्ण
किसी भी धर्म में, किसी भी पोथी में
अँट नहीं सका यह पूरी तरह
हर रूप में कितने-कितने रूप
कितना-कितना बाहर
और कितना-कितना भीतर
क्या तुम देखने चले हो दुःख
नहीं जाना है किसी भविष्यवक्ता के पास
न अस्पताल न शहर न गाँव न जंगल
जहाँ तुम खड़े हो
देख सकते हो वहीं
पानी की तरह राह बनाता नीचे
और नीचे
आग की तरह लपलपाता
समुद्र-सा फुफकारता दुःख
कोई पंथ कोई संघ
कोई हथियार नहीं
कोई राजा कोई संसद
कोई इश्तिहार नहीं
तुम
हाँ हाँ तुम
सिर्फ़ हथेली से उदह हो
तो चुल्लू भर कम हो सकता है
मनुष्यता का दुःख ।