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मनुष्यता / प्रेमरंजन अनिमेष
Kavita Kosh से
भरी हुई गाड़ी में
कैसे कहाँ रखूँ
टपटप चूता अपना छाता
जो बचा कर यहाँ तक लाया ?
ओस पर चल कर
तलवों में लग गया
एक और तलवा
घास और मिट्टी का
किस ड्योढ़ी पर
दूँ रगड़ ?
भोर गर्म कपड़ों की तरह
निकला था पहन कर जो विचार
अब दोपहर की धूप में
वही हो गया है भार
सारी सफ़ाई सजावट के बाद
कहाँ रहे वह पोंछना
जिसने पूरे घर को पोंछा ?
कोई हड़काए
बिसुकी यह गाय
छाँह पानी के लिए जो बेकल
दरवाज़े-दरवाज़े जाए...