मनुष्य और कुत्ता / जगन्नाथ त्रिपाठी
मनुष्य और कुत्ता
कल्पना किया
बुद्धि वैभव सम्पन्न
धरती का कन्चन
प्राणि-जगत आभूषण
अद्वितीय सृष्टि-प्रणयन
बाह्य-सौन्दर्य मण्डित
पर,
ह्नदय-सत्य से वंचित
विश्व का आश्चर्य
यह अभिनव मनुष्य
यह बुद्वि-जीवी पशु
पशु से भी अधम
ह्नदय से निर्मम
मानव उर की विभूति से रीता
जी हाँ,
यह तो
कुत्ते से भी गया बीता।
आप कहेंगे
क्यों भाई ?
यह कैसे ?
कैसे ?,
तो,
सुन लो, बन्धु!
खूब ध्यान से
अब
प्रमेय उपपत्ति-
ताकि
तुम्हारे साथी-जन को
हो न जाय आपत्ति।
रेखा गणित पुराण का
पिछला प्रमेय कहता है-
स्वान-रसना में
अमृत-रस होता है
जो व्रण-पूरक, क्षत-नाशक होता है
परन्तु,
नर-रसना में
रस ना,
विष भारी होता है।
स्वान तो सदा
अनजाने को
काटता है
परंतु, नर,
नर तो
जाने पहचाने को
डसता है
जो ज़रा भी
जिसकी वफ़ा का यक़ीन करता है
क़सम ख़ुदा की
उसी से फ़रेब खाता है।
यही नहीं,
कुक्कुर तो, प्यार से
पुच्छ चालन करता है
पर, मानव,
मानव क्षुद्र स्वार्थ हेतु
पुच्छ चालन करता है
और, इसीलिए, भाई,
मैं बार-बार कहता हूँ
क्या, बुरा करता हूँ
कि
यह मनुष्य
जी हाँ
यह अमिनव मनुष्य -
यह तो
कुत्ते से भी गया-बीता है ।
बस,
यही सिद्ध करना था ।।