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मनुष्य होने की तमीज़ / मनोज शर्मा

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ख़ुश हूँ और चुप हूँ
कि मैं तुम में
और तुम मुझमें धड़क रहे हो
यह कालातीत है

मैनें जो कथाएँ बुनीं
जिस समाज के लिए रहा बचनबद्ध
जिन क्यारियों में रोपे फूल
तुम प्रतिपल वहाँ खड़े मिले हो
चुप्पी में ख़ुश हूँ

संघर्ष, तुम्हारी जिजीविषा बना है
रोटी का कौर तोड़ते
जब तुम्हारी आँखों के कोर
पनियल हो उठते हैं
मैं इसे देख रहा होता हूँ

तुम्हारे सवालों में है जो गूढ़ता
मनुष्यता की अस्मिता है यहाँ
किताबों में दर्ज़ होने के बावजूद
किसी रसायन-सी हवा में घुलीमिली है
उसे खोलने, उससे टकराने का
तुम बीड़ा उठाते
बार बार मिलते हो
तपती दोपहरी में
यह फुहार के अहसास-सा है

मेरे बच्चे
जीवन के ख़र्च हो रहे साल
केवल गिनती ही तो हैं
और संख्या तो कई बार
गणित तक का अतिक्रमण कर जाती है

जियो, भरपूर जियो
अपनी संवेदनाओं, इच्छाओं, हौंसले
पसंदगियों नापसंदगियों
मौलिकता संग जियो
तथा मथो समय को
कि यही तो गणना में बचा रहेगा

मनुष्य होने की तमीज़
ख़ुराक मांगती हूँ
मनुष्य होने की तमीज़
आपको, आपकी पीठ से निहारती है
मनुष्य होने की तमीज़
धरती चूमना होता है

इस जन्म दिन पर
मेरी चुप्पी लहलहा उठी है
अंतस में
हिमालय से आती हवा है
और नज़र आ रहे हैं
कई युवा साथी
ठहाके लगाते हुए
उमंग भरे गीत, गाते हुए