मनुष्य होने पर ही / हरीशचन्द्र पाण्डे
कि मनुष्येतर भी है संसार
मनुष्य होने पर ही जाना हमने
बैल होने पर हम केवल जुतना जानते, खूँटा जानते अपना
अपने सहजुते बैल को चाट लेते कभी
कभी सींग मार लेते
चींटियाँ होने पर मिठास जान लेते शायद
पेड़ होने पर धूप, हवा और मिट्टी जान लेते
कोयलहोने पर कौए से राजनीति कर लेते
लेकिन उसमें न पश्चाताप होता न अपराध-बोध
व्याकरण नहीं रचते अगर मनुष्येतर होते हम
न विचार-मन्थन करते न आविष्कार
कोई धरोहर न होती हमारे पास
सारा सब कुछ सोचा हमने मनुष्य होकर ही समग्रता में
इस सम्भावना के साथ कि बहुत कुछ दबा है अभी जानने को
अपने जाने हुए में भी संशोधन किये हमने कई-कई बार
अणु के यथार्थ को पहचाना तो विराट की फन्तासी भी की
शायद बहुत पहले हमने मनुष्य होकर भी नहीं जाना
कि मनुष्य हैं हम
जब हमने जाना कि हम मनुष्य हैं
तब हमने यह भी जाना कि
हमारा जानना जानना नहीं ‘अवद्यिा’ है
मनुष्य कुछ नहीं है मनुष्य होकर भी हमने सोचा
और यह कि सच है अगर तो कुछ और है, मनुष्येतर
नहीं सोचा तो हमने केवल यह नहीं सोचा
कि मनुष्य ही सच नहीं है अगर
तो वह सच कैसे है
जो सोचता है यह मनुष्य, मनुष्येतर