मनोभावों से घुरकी देते-देते / मनीष यादव
मनोभावों से घुरकी देते-देते
उस स्त्री-मन के संशय का स्तर कितना उँचा हुआ
कि अपने पति को छोड़ भाग गई!
खेसारी,बूँट के साग की भाँति
कितने पूस-माघ तक उस पुरुष को
स्वयं के देह और मन को मथने की अनुमति दे वो स्त्री
जैसे सत्ता के अंधकार में लिपटा व्यक्ति
ख़ुद का नंगापन नही देख पाता
वैसा ही था वो पुरुष.
जिसे अपने कुर्ते का दाग़ तो दीखता था
किंतु अपनी स्त्री के दड़कते विश्वास नहीं दिखे!
किनारा ओझल होते ही पानी उसके मन में ठहरा
बहाव उसके अकेलेपन का साथी जान पड़ा
लेकिन अपने पुरुष की कोई स्मृति तक उसे वापस पुकारने नहीं आई
सुनो मेघा – घर लौट चलो!
जब उसके भाग्य में ऐसी कोई पंक्ति नहीं
तो प्रेम कितनी दूर की बात होगी।
विचारो इस गूढ़ आघात की पीड़ा क्या होती होगी?
दूसरा किनारा आते ही
अपनेपन के भाव से वो स्त्री एक छोटे पत्थर को मुट्ठी में भर लेती है
पुन: अपने पैरों की बिछिया को उतार
फेंक दिया दूर पानी में गोते खाने को.
और अब वह भागी जा रही है
मेरे स्वप्न में आने वाली उसी दूर देस के बंगालिन की तरह!
मुझे ज्ञात नहीं
कि वो भागी हुई स्त्रियांँ
अंततः कहां लौटने के लिए भागी!
परंतु इतना ज्ञात है मुझे
जो नहीं भाग पाई और टूट गई जिनकी हिम्म़त
उनके जीवन को कूट दिया गया
ओखली में पड़े इलायची की तरह..
किसने कूटा?
यह आपका प्रश्न एवं उत्तर दोनों है।