मन्दिर की सीढियाँ / सुभाष काक
(१९९९, "एक ताल, एक दर्पण" नामक पुस्तक से)
१
मेरे समछाया के आंगन में
पपीहे ने पहला गान किया।
२
मालूम नहीं कहां से यह गीत
धरती पर गिर आया।
३
मचान से देखते
बाघ कितना सुन्दर लगता है।
४
तितली मेरे हाथों में
देखते देखते मर गयी।
५
देखो! पर्वत
कम्बल के नीचे सोया है।
६
पुष्प खिले
दूसरे दिन
हिमपात हुआ।
७
मैं फूलों को
चुनना नही चाहता
पर घर कैसे लौटूं
चुने बिना।
८
पता नहीं किन फूलों की
सुरभि फैल गई
आंगन में।
९
बादल कभी कभी
चान्द को ढक लेते हैं
कि हमारी निहारती आंखें
थक न जाएं।
१०
देखो इस पत्ते से गिर
जलबिन्दु
कैसे विभाजित हुआ।
११
पपीहे की चीख सुनकर
मुझे स्वर्गवासी दादा की
याद आई।
१२
चान्द की कितनी
समदृष्टि है।
१३
नववर्ष के उत्सव के लिये
मेरे पास नव वस्त्र कहां?
१४
ओठ ठिठुरते हैं
इन हवाओं में।
१५
इस चांदनी रात में
केवल मेरी छाया मेरे साथ है।
१६
तूफान की हवा बन्द हो चली
पर उसका चीत्कार अब
नदी के कलकल में है।
१७
मन्दिर की घण्टी में
मकडे ने जाल बनाए।
१८
हाय, इस पुष्प वाटिका में
लोग रंगे चश्मे पहने हैं।
१९
मेरी प्रियतमा नहीं
तो मैं क्यों कविता करूं।
२०
उडान भरने से पहले राजहंस
बत्तख लग रहा था।
२१
अद्भुत सौन्दर्य के पुजारी हैं वह
जो वीराने में खोजे हैं खुशी।
२२
सूर्य चढता गया
कलियां फूटती गईं।
२३
अभिनव अर्जुन
केवल तीर चलाता है।
२४
अरुषी रो रही
सखी से कैसे मिले।
२५
एक और सावन ढल गया
सब मित्रों के केश में
रंग है अब।
२६
वर्षा की पहली रात में ही
छुरी कलंकित हुई।
२७
मैं महलों में सोया हूं
वहां बहुत सन्नाटा था।
२८
मरुस्थल में
ऊंट भक्ति से
भार ढो रहे।
२९
पतझड के तूफान में
काकत्रासक तृणपुरुष
सबसे पहले उड गये।
३०
भिखारी के आंगन में
सुन्दर फूल खिले हैं।
३१
कोयल की उडान देख
श्येन को याद आया
वह भी उड सकता है।
३२
आज दिन की धूप में, प्रियतम,
तुम्हारा छत्र कितना छोटा है।
३३
शाम की समीर में
सन्तुष्ट है मकडा
जाल बुनता है।
३४
पेड ऐसे झूल रहे
जैसे चित्र बना रहे।
३५
सूर्य के ३३९ गीत सुनने
मैंने प्राचीन मन्दिर की
१०८ सीढियां चढीं।