भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन्दोदरी / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्बल तन भारी मन लेकर मन्दोदरि,
फिर लौटी थी लंका के राज-भवन में!
प्रहरों उदास चुप बैठी सोचा करती,
जो उथल-पुथल हो गई शान्त जीवन में!
अपने जीवन-क्रम में यों व्यस्त दशानन,
इस नूतन घटनाक्रम को जान न पाया।
बीते कितने ही वर्ष किन्तु रानी ने,
पति सन्मुख सहज भाव ही था दर्शाया!
कन्या की खोज-खबर रखती थी त्रिजटा,
अब युवा हुई मिथिला की राजकुमारी।
सब साज स्वयंवर के नगरी ने साजे,
देखें आये किस राज-कुँवर की बारी!

मन्दोदरि व्याकुल हो-हो कर रह जाती,
लंकापति को सूचना न यह मिल पाये,
वह दूर-दूर घूमता रहे द्वीपों में
चाहे कुछ हो पर भारतवर्ष न जाये!
मन शान्ति न पाता था किंचित् क्षण को भी,
चिंता में भोजन -पान सभी कुछ छूटा,
बिन जाने ही पी डाला अभिमंत्रित जल,
क्षण की दुर्बलता ने सारा सुख लूटा!
मै छोड अन्न-जल अपना व्रत साधे हूँ,
मेरे पति को पातक से तुम्ही बचाना,
अब यही परीक्षा होगी तुम्हे शपथ है,
ओ भोलेनाथ, आन मेरी रख जाना!

जब मिला सँदेशा सीता की वरमाला, रघुकुल-कुमार ने धनुष भंग कर पाई,
अति हर्षित पूर्णकाम रानी मन्दोदरि, मानता पूर्णकर अंतःपुर में आई।

संतोषपूर्वक मन्दोदरि मुस्काई, "यह व्रत उद्यापन हुआ तुम्हें शुभकारी,
बच गए अनिष्टों से अपने घर लौटे, मन-ही मन चिन्ता सोच मुझे था भारी!”
शिव-धनुण भंग कर जीता वहाँ स्वयंवर, सुनती हूँ अवधपुरी के राज-कुँवर ने,
तुम कहाँ-कहाँ विचरण करते रहते हो, तुम पहुंचे थे क्या वहीं जनक के पुर में?

गहरी सी दृष्टि देखता बोला दशमुख- “तुम रहीं छिपाए लेकिन मुझे विदित सब"!
विस्मित विमूढ हो उठी रुआँसी रानी, कुछ बोल न पाई दृष्टि रही नत ही नत!
"मिथिलापुर के आयोजन में यश पाऊँ, कामना यही जागी थी मेरे मन में,
अपने भुज-बल पौरुष की धाक जमाकर, दुर्लभ कन्या को लाऊँ अन्तःपुर में"!

वैदेही की अनुहार लगी ऐसी ही, जब मैंने तुम्हें प्रथम देखा था सम्मुख,
फिर याद आगई लुढ़का हुआ पड़ा था, ऋषि-यज्ञों वाला रिक्त हुआ सा वह घट!
कुछ अनुष्ठान करने को उसी अवधि में, तुम भी रानी, त्रिजटा के साथ गईं थीं,
जुड़ गई कड़ी जब जाना वैदेही भी, धरती से जन्मी, औरस नहीं जनक की!

लक्षण सारे देखे थे अपनी आँखों, उन दिनों तुम्हारा रूप बहुत निखरा था,
फिर लौटीं तुम फीकी उदास, हत होकर, तब भी संशय मन में कुछ नहीं उठा था"!
नयनों के आगे अंधकार सा आया, चकराया मस्तक, कंपित थे डगमग पग
मन्दोदरि का विवर्ण मुख देखा उसने, "व्रत की दुर्बलता? यह क्या हुआ अचानक"?

तुम हो अस्वस्थ? चिन्तित सा हो कर रावण,गिरती-सी रानी के समीप बढ आया,
कोमलता से सम्हाल कर लंकापति ने धीरे से ले जा चौकी पर बैठाया!
कुछ संयत चित होने तक मौन रही वह,या क्या बोलूँ, यह सोच रही हो मन में
"हालाहल पीकर भी न मरी हतभागी, दुर्भाग्य झेलना शेष रहा जीवन में!"

अब जब स्पष्ट हो गया सब तो जागा अंतर में संशय!
रानी बोली,'मेरे मन में लज्जा थी और छिपा था भय,
कल्याण कामना को अन्यथा अगर लो, दे दो मुझे दण्ड,
विश्वास करो मुझ पर या धर दो, स्वेच्छाचारण का कलंक!'

पत्नी के मुख पर दृष्टि सान्त्वना देती स्वर मंद कि जैसे आत्ममग्न-
मन ने मन को पहचान लिया फिर अविश्वास का कहाँ प्रश्न?
मेरे हित का ही संपादन इतनी अशान्ति, दुख सह कर भी,
इस जीवन की उपलब्धि, प्रिये, तुझ जैसी निष्ठामयि सहचरि!

"मै नहीं जान पाया रानी, तेरा दुख, भीतर-भीतर तुम सुलग रहीं एकाकी,
मेरी आयुष्य हेतु अपनी ही पुत्री, उर पर पत्थर कर तुमने यों त्यागी?"
मै अपराधी हूँ, किन्तु तुम्हारे मंगल के हेतु त्याग कर आई थी पुत्री का,
पर अनाचार की बात... हाथ मुँह पर धर रावण ने आगे का उसका स्वर रोका!


शिव-शिव बच गया महा पातक से मैं तो, 'शिव-धनुष' शब्द सुन चेत गया मेरा मन,
जीवन का वह विष मुझे पचाना होगा, तुम पान कर गईं जिसको मेरे कारण!
संततियाँ कहाँ-कहाँ जन्मी हैं जाकर उन्मुक्त भोग-कर्ता कैसे जानेगा?
वासना-पूर्ति हित अपनी ही पुत्री की, लालसा जगी तो कैसे पहचानेगा?

मैं ही हूँ रानी तेरा चिर-अपराधी मेरे कारण संताप सदा ही पाया,
लेकिन उस दिन से कितना बदल गया हूँ,शायद यह तुमने अब तक जान न पाया!
रावण का उर से लगी रही मन्दोदरि, सुकुमार देह रह-रह कम्पित हिचकी से,
पुत्री को मिलवाऊँगा तुझसे निश्चित, जूझना पड़े फिर चाहे मुझे किसी से

मैं उन में नहीं कि शंकित होकर कर न सकूँ, तुझको धारण,
अति दीन विवश, कुण्ठित कर दूँ, बस अहंमन्यता के कारण!
जग के सम्मुख अधिकार जता, जो दिखलाते अपना प्रभुत्व,
आभास तुच्छता का देता, उनको ही पत्नी का महत्व!
मै कुण्ठित नहीं, प्रशस्ति और तेरी गुण-गरिमा के कारण,
सम्मान तुझे देकर, गौरव मैं ही पाता हूँ, प्रिये स्वयं!
किसमें साहस आक्षेप करे, तेरे आचार -विचारों पर?
मैं,तेरा पति हूँ संरक्षक, जी अपना मस्तक ऊँचा कर!'
रानी चुप सुनती रही, सोच था मन मेंमैंने अशान्ति की प्रस्तावना रची है,
कैसा अनर्थ कर बैठी हूँ अब इससे, क्या कहीं मुक्ति की संभावना बची है?
था वातावरण उदास, बोझ भारी सा जैसे कि हृदय पर बैठ गया हो जम कर,
हो सके स्वभाविक यह प्रयत्न करता-सा हो गया मुखर लंकापति का गहरा स्वर
कितना भी भोग करूँ रानी, पर मेरी बुझती नहीं प्यास,
तेरे बिन तृप्ति नहीं होती, फीके पड जाते सब विलास,
कोई भी नारी हो-गंधर्वी, असुर, नाग सुर या अप्सरि,
हर बार यही मन में उठता, मेरी अपनी तू सर्वोपरि!

वह नशा उतरते ही मेरे मन का उठता है बोध जाग
मैं भाग चला आता इस अमृत प्रेम का सिर धरने प्रसाद!
अवसाद उतार भरा मन ले, मैं दौड़ चला आता लंका,
तुझसे गोपन कुछ भी न प्रिये, मैं बतला रहा सत्य मन का!

वह अति की प्यास जगाती अति वैराग्य, शमन के उपक्रम में,
तू ही संतुलन बिठाती है, विविधाओं विरचित जीवन में!
मन में यह उठता बार-बार, सब सौंप पुत्र को धरा-धाम,
अति शान्त मनस्थिति में निस्पृह हो शेष आयु बीते अकाम!

सब छोड़ ऊपरी ताम-झाम आराध्य शंभु औ तू सहचरि,
हिमगिरि के वन हों, रम्य गुहा, गंगा का तट हो स्वर्गोपरि!
जो होगा होने दो, भोले की लीला, है कायर नहीं, समर्थ तुम्हारा स्वामी!
जीवन या मृत्यु सहज हो स्वीकारूँगा, दीनता नहीं सीखी है मैने रानी!"

अभिषेक स्नेह-जल का पाती मयकन्या,
चुपचाप छिपाए मुख रावण के उर में,
उस केश-पाश पर मुख धर लंकापति भी
अति शान्त भाव से बैठा रहा अजिर में!