मन-चन्द्र झकोरे खाता है / विमल राजस्थानी
चाहिये न तुमको धरा प्रिये! चाहिये न तुमको नील गगन
कवि के जीवन-तरु से लिपटी तुम अमर-बेल सी बढ़ा करो
अरुणिम अधरों पर अधरों ने मधुरिम जो गीत लिखे रानी!
तुम झुकी-झुकी पलकों उनके प्राणों की छवि-लिपि पढ़ा करो
दो हृदय परस्पर जुड़ते हैं
साँसों से साँसे मिलती हैं
है आदत बहुत पुरानी, तब-
दुनिया मन ही मन जलती है
जलने वालों को जलने दो, खुद को खुद ही से छलने दो
करुणाभा-किरण मचलने दो, हिम-सा कवि-हृदय पिघलने दो
दो मुक्ति अश्रु-गंगा को, उर-गोमुख से इसे निकलने दो
तप-त्याग-क्षमा से छवि-मंडित इतिहास प्रेम का गढ़ा करो
जग से न हमें कुछ लेना है
केवल देना ही देना है
अनुभाव-भाव रस-ज्वारों में-
कल्पना-तरी को खेना है
नव रस-सागर लहराता है, चिंतन दिल खोल नहाता है
इन ऊँची-नीची लहरों पर मन-चन्द्र झकोरे खाता है
झिलमिल प्रकाश जल-पंखों पर छवि-छाया चित्र बनाता है
तुम इन चित्रों को चुन-चुन कर मन के दर्पण में मढ़ा करो
-1.1.1975