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मन-प्राण समान / कविता भट्ट

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1
ना ऑक्सीजन;
प्राण- अनन्त ऊर्जा
ब्रह्माण्डीय है।
2
निश्चेतन मैं
ऑक्सीजन ही नहीं
प्राण चाहिए।
3
मैं काया- मात्र
तुम प्राणिक ऊर्जा
ओ! प्रियतम।
4
ओ! मनमीत
बाँसुरी- सी बजा दे
फूँक तू प्राण।

5
जीवन शेष-
तू देगा प्राणवायु
पीपल बन।
6
धरा के प्राण
अम्बर में बसते
किन्तु विलग।
7
पीपल छाँव
प्राण बसते जहाँ
कहाँ है गाँव।
8
प्राण विलग
कामनाएँ सिसकी
काया निढ़ाल।
9
जब भी जागूँ
मन-प्राण समान
तुमको पाऊँ।
10
घाटी- सी देह
नदी प्राण -सी बहे
गाती ही रहे।
11
प्राण धरा का
सागर का जीवन
तू प्रेमघन!
12
कपाट खोलो
प्रिय के पदचाप
प्राणों से लौटे।
13
होता धागा जो
ये प्राणों का बन्धन
मैं तोड़ देती।
14
जल में बसे
मीन विलग हुई
प्राण निकसे।