भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन अबोध परतारि रहल छी / आभा झा
Kavita Kosh से
कामनाक फुनगी पर बैसल
लिबल डारि सहटारि रहल छी,
नील गगन दिशि नजरि गड़ौने
मन अबोध परतारि रहल छी।
अनकर अरजल धन दतियौने
आश्रित कें सदिखन लतियौने,
परसुख देखि जुआरि उठैयै
माहुर सन बोली निकसैयै।
अपन कान पर ध्यान पड़य नहि
कौआ उड़ल खेहाड़ि रहल छी...
मन अबोध परतारि रहल छी।
माया मोहक मद्य चढ़ौने
अहं गेठरिया के पजियौने,
दुखियो देखि फटय नहि छाती
सड़लो आम चटै छी आंठी।
भोर सांझ आ राति अन्हरिया
सतत हथोड़िया मारि रहल छी...
मन अबोध परतारि रहल छी।
पैरूख घटल मेटल सभ प्रभुता
पुछए नै केओ करत के ममता!
पानि अछैत पियासे रहलहुँ
अपनें खुनल खाधि में खसलहुं
सूदि समेत भेटल कलयुग मे
आकुल उर थथमारि रहल छी
मन अबोध परतारि रहल छी।