भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन आषाढ़ हो चला / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
फिर
मन आषाढ़ हो चला
तैरती रुई धुनी हुई
बंद हवा लिखती हैं
दहभर पसीना
दीवारों में कसी हुई
माथे पर हाथ रखे बैठी है तबीयत होकर छुईमुई
चप्पा -चप्पा खड़ी उमस
परत -दर-परत चुनी हुई
बूँद - बूँद गलकर हम भीड़ो में
बहते हैं हिमनदी सरीखे
हम खंडित इंद्रधनु उठाए
इस्पाती भाषा में चीखे
बादामी कानो तक आकर
सुनी बात अनसुनी हुई
पुल से, चौराहों से गुज़रती नज़र ने
बोया थर्राता भटकाव
ढोता है भर पारदर्शी
माथे की नसों का तनाव
रंगहीन हो चला नगर
पिटी शाम साबुनी हुई