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मन कहाँ को चल चला तू / मानोशी

मन कहाँ को चल चला तू ।।

छोड़ आया बाग़ सारे,
आसमाँ भर के सितारे,
चाँद हाथों से फिसल कर
गिर गया सागर किनारे,
ढूँढता क्या अब भला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।

बहुत देखे प्रेम-बंधन,
मोह में फँस झुलसता तन,
दौड़ता मन दिग्भ्रमित सा
और फिर ढल गया यौवन,
अब गिने क्यों कब जला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।

रात हो जब बहुत काली,
फूटती तब भोर-लाली
आस जब मुरझा रही हो,
विहँस आती बौर डाली
हारता क्यों हौसला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।