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मन का आंगन सूना है / राम लखारा ‘विपुल‘
Kavita Kosh से
जब से दूर हुए तुम हमसे
मन का आंगन सूना है।
तुम संग जीवन रंग बिरंगा
तुम बिन कितना सादा है।
सुधियों की आवाजाही में
उपजी कितनी बाधा है।
खुशी हो गयी आधी तुम बिन
गम का हिस्सा दूना है।
जब से दूर हुए तुम हमसे
मन का आंगन सूना है।
सच कहते है आग बुरी है
सबको जलना पड़ता है
लेकिन जीवन नाम इसी का
फिर से फलना पड़ता है
इस अग्नि ने सूखें के संग
हरियाली को भूना है
जब से दूर हुए तुम हमसे
मन का आंगन सूना है।
सारे मुक्तक मंत्र हुए हैं
गीत भजन में निखरे हैं।
कविताओं के पुष्प दुःखों के
कल्पवृक्ष से उतरे हैं।
इस साधू मन के भीतर ही
एक धधकता धूना है।
जब से दूर हुए तुम हमसे
मन का आंगन सूना है।