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मन का चक्रव्यूह और वह ! / रश्मि प्रभा

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(यदि कभी तुम्हारा मन भी ऐसे किसी चक्रव्यूह में फंस जाए
जहां कोई उत्तर न हो, कोई विश्वास न बचे,
तो उस मौन में एक प्रश्न ज़रूर उठाना
"क्या यही अंत है?"
क्योंकि प्रश्न उठते ही,
मन मौन नहीं रहता
और जहां मन मौन नहीं,
वहां सच जानो कि जीवन अब भी सांसें ले रहा है ।)
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कई बार अपनी ही मनःस्थिति
चक्रव्यूह बनाती है
अनुमान, संभावनाओं के घने जंगल में
खो जाती है ।
आवाज़ देना चाहो
तो ध्वनि हीन पुकार होती है
बहुत कुछ निरर्थक लगने लगता है
अपनों पर संदेह होता है
कोई सुबह नहीं होती
बस अंधेरा
सिर्फ़ अंधेरा...
फिर एक दिन,
भीतर से आती है कोई हल्की दस्तक
कोई तो पूछता है,
"क्या यही अंत है?"
बस वही एक प्रश्न
टूटते हुए अस्तित्व को
थामने लगता है ।
कभी कभी धूप नहीं उतरती सीधे
पर किसी खिड़की की दरार से
एक किरण
मन के कोने में
धीरे से ठहर जाती है ।
शब्द नहीं होते पास
पर मौन में
एक अज्ञात आश्वासन कहता है
कि यह अंधेरा भी
एक बीज है शायद
जिससे निस्संदेह कोई अर्थ
फूट पड़ेगा - विश्वास करो ।