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मन का दरवाजा / नरेश मेहन
Kavita Kosh से
मेरे
मन की कुंडी
मेरे पास थी
जिस के दरवाजे पर
मैंने लगा रखा था
मजबूत ताला
क्या मजाल है कि
खोल सके कोई साला।
दस्तकें होती थीं
दस्तक दर दस्तक
मैं
प्रत्येक दस्तक पर चौंकता था
मगर
उठकर कभी
दरवाजा खोलने की
जरूरत नहीं समझी।
बाद मे पता चला
दस्तक देने वाले हाथ
बहुत मजबूत थे
जो
लोगों की ज़िन्दगी के साथ
ठीके वैसे ही खेलने का
शौक रखते हैं
जैसे
आवारा और मनचले बच्चे
सड़क पर पड़े
खाली डिब्बों के साथ
पैरों से खेलते हैं।
मैं इन हाथों का खेल
बहुत पहले जानता था
इनको बहुत नजदीक
से पहचानता था
उनके हाथों
या पैरों का
खिलौना नहीं बनना चाहता था
इसलिए
मैंने अपने मन का दरवाजा
मुश्तैदी से बंद कर रखा था।