मन का दीप जला रे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
जब जब फूल खिले बगिया में तब तब भ्रमर पधारे।
मोहक छनद पढे कोकिल ने मधुरिम राग सँवारे।
जीवन में नवजीवन लाता नव वसन्त कुछ ऐसा
फूल फूल से कहे बयरिया मलय सुगन्ध लुटा रे !
खेतों में चाँदनी मचलती प्रगति सरीखी लगती
चलकर जीवन सुधाधार में कुछ पल तो नहला रे !
प्राणों के खग पंख फड़फडा़ते है फिर गिर जाते
निर्बल के बल राम कहाँ है मुझको आन बता रे !
जलने मिटने को चिन्ताएँ छोड़ चिरन्तन पर दे
मेरी आशा के नव अंकुर ! तू फिर फिर अँखुआ रे !
नव प्रभात में प्रभा स्नात उपवन वासन्ती उन्नत
याकि धरा ने हर्षित होकर अभिनव कलश उभारे।
अब तक दहक रहे मरूथल है भीतर बाहर मेरे
मेरे मोहन अब तो आकर कुछ मधुरस बरसा रे
घी के दिये जलाए कितने तम न मिट सका फिर भी
मन के अन्दर बैठ मनन कर मन का दीप जला रे।