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मन का मीत / राजेश शर्मा 'बेक़दरा'

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अंतर घट में घूम रहा हैं
तुम्हारे नाम का ही साया
जिव्हा तक आते आते
खो जाती है क्यो
शब्दों की माला
चेहरा तुम पढ़ न पाये
मौन व्यथा
क्या पढ़ पाओगे
अभिशप्त अधुरेपन में
क्या साथ निभा पाओगे ?
बहती नदी के दो किनारे
आपस मे कब मिल पाए हैं
प्रेम बना जब मीत हृदय का
तब ही दोनों मिल पाए हैं