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मन का वह मौन संवाद / रश्मि प्रभा

कृष्ण,
मैं जानती हूँ,
तुमने मेरी लाज बचाई…
पर एक प्रश्न है जो मेरी आत्मा में रह गया
जब दु:शासन मेरा चीर खींच रहा था,
तब तुम क्यों नहीं कह सके — ‘रुको !’
क्या स्त्री की मर्यादा
केवल चीर बढ़ा देने से लौट आती है ?
तुम ईश्वर थे,
पर क्या उस सभा में उपस्थित प्रत्येक इंसान इतना भावहीन था
कि मेरे आंसुओं को देखकर, मेरी दयनीय स्थिति के समक्ष उठ भी नहीं पाया ?
मैंने तुम्हें पुकारा,
पर क्या यह सिर्फ़ मेरा ही धर्म था कि पुकारूँ ?
क्या तुम्हारा धर्म यह नहीं था कि बिना पुकार सुने आ जाओ ?
कृष्ण…
मैं जानती हूँ,
तुमने बहुत कुछ किया,
पर जो नहीं किया
वही मुझे अब तक सालता है।...

यह वह कंपन है जो शास्त्रों में दर्ज नहीं है,
पर स्त्रियों की चेतना में आज तक निश्वास बैठी है ।

कृष्ण ने कहा-
सखी तू पूछती है मुझसे
कि मैं वहां क्यों नहीं था,
जब दु:शासन तुझे,
तेरे वस्त्रों को खींच रहा था...?
तो सुनो सखी
मैं वहीं था
तेरे आंसुओं की पहली बूंद में,
तेरे कंठ की जमी चीख़ में,
तेरे आत्मबल की जड़ों में ।
हां मैं वहां नहीं था
जहां स्त्रियां वस्त्र बना दी जाती हैं,
मैं वहां था
जहां उनका आत्म-स्वाभिमान
देवताओं से ऊंचा होता है।
तुम आवेश में यह कैसा निरर्थक सवाल पूछती हो
कि "पांच पतियों ने क्यों नहीं कुछ कहा ?"
अरे मैं तुमसे जानना चाहता हूं
कि तू पांच पतियों से बंधी थी,
या एक विराट नारीत्व से ?
"तू ऊपर से मौन थी, पर भीतर चिल्ला रही थी
कि क्या स्त्री का न्याय सिर्फ याचना है ?"
मैं कहता चाहता हूं
कि तेरा आवेशित मौन ही युद्ध का प्रारंभ बना,
तेरे अपमान ने अर्जुन को गांडीव उठाने की आग दी ।
सखी,
तू सिर्फ कारण नहीं थी युद्ध की,
तू निर्णायक थी
कि किसका धर्म बचेगा और किसका मुखौटा गिरेगा।
तू पूछती है अपने सखा से
क्या तुम भी पुरुष हो ?"
मैं कहता हूं विराट रूप में,
यदि पुरुष का अर्थ पीड़ा न समझना है,
तो नहीं हूं मैं पुरुष !
यदि पुरुष का अर्थ रक्षा के पहले प्रश्न करना है,
तो नहीं हूं मैं पुरुष ।
मैं तेरा सखा हूँ,
जिसने तेरे मौन को
इतिहास बना दिया ।
तुम वह आवाज़ बनी
जो एकांत में गिरेबान पकड़ ले।