मन का विश्वास रही हो / राहुल शिवाय
आते-जाते इस जग में, मन का विश्वास रही हो।
तुम जितनी दूर गई हो, उतने ही पास रही हो।।
होठों से लाली छूटी, रिश्ता तुमसे वह छूटा।
जो बंधन था तुमसे वह सूखे पत्तों-सा टूटा।
कितनी ही बार लुटे हैं, तुमसे यह प्रीत लगाकर-
लेकिन मन ने कब माना तुमने ही हमको लूटा।
जो नहीं बुझी, न बुझेगी तुम वैसी प्यास रही हो।
कितनी ही बार अहम से परित्याग तुम्हारा करके।
‘हम भूल गए हैं तुमको’ यह झूठ हृदय में भरके।
ख़ुद में साहस बाँधा है उम्मीदों को तज-तज कर-
आँखों में नीर सुखाया इस दिल पर पत्थर धरके।
सच पर यह है जीवन में तुम बनकर श्वास रही हो।
मैं क्या देखूँ, क्या छोडूँ, सबमें है रूप तुम्हारा।
तन हार गया है तुमको, लेकिन मन कब है हारा।
जो मेरे मन की पीड़ा, जो प्राण! तुम्हारी पीड़ा-
दोनों को गुनता रहता बैठा यह हृदय कुँवारा।
जिसको जपता रहता हूँ, तुम वह अरदास रही हो।