मन का / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
छेड़ता जो कि है जले तन को,
कौन कहता उसे नहीं सनका;
आग के साथ खेलना है यह,
यह पकड़ना है साँप के फन का।
गिर किसी जल रहे तवे पर वह
क्यों न जल-बूँद की तरह छनका;
जाति में आग जो लगाता है,
क्यों न गोला उसे लगा गन का।
धूल में धाक मिल गयी सारी,
है कलेजा कढ़ा बड़प्पन का;
किस तरह ठान ठानती कोई,
जाति-माथा न आज भी ठनका।
छोड़ना एक आन में होगा,
हो भले ही मकान सौ खन का;
आ गयी साँस, या नहीं आई,
क्या ठिकाना हवा-भरे तन का।
मेघ की छाँह है, छलावा है,
क्यों किसी को गुमान है धान का;
धूल में मिल गये महल लाखों,
छिन गये राज हो गया 'छन' का।
है जिन्हें पेट की पड़ी, उनको
मिल गया क्या न, फल मिले बन का;
पूछ लें मोल चींटियों से हम
चावलों के गिरे हुए कन का।
भूलते लोग सब रसों को हैं,
जागता भाग है मरे जन का;
हो सकेगी न पूछ अमृत की
मिल गये दूध गाय के थन का।
है सिधाई बहुत भली होती,
है बुरा रंग काइयाँपन का;
साँसते हों, मगर सता पाएँ,
हम न यह ढंग सीख लें 'संन' का।
फूटने पर जुड़ा नहीं जोड़े,
ठेस थोड़ी लगे बहुत झनका;
क्यों न आँचें सहे, पिटे, टूटे,
ठीक बरताव है न बरतन का।
कौन उसकी रहा न मूठी में
सब कँपा देख रंग अनबन का।
है कहाँ, कौन मिल सका ऐसा,
जो कहा मानता नहीं मन का।