Last modified on 11 सितम्बर 2021, at 22:31

मन की तलछट से उगी हरी धरती / मृदुला सिंह

मन की तलछट में
किर्च-किर्च स्मृतियो का जुटान
होता गया समय के साथ
वे सोई पडीं रहीं
बिन करवट लिए
कुछ स्मृतियाँ प्रेम की तरह कोमल थी
कुछ लोक की तरह सुंदर
और कुछ संघर्ष की
जो कभी नोटिस ही नहीं हुईं

धूपछाही समय में ये
तरंगित होती रही
मन के किसी कोने में
धीरे धीरे सयानी हुईं यह स्मृतियाँ
एक दिन सघन हो उठीं
और सुबक कर रोते रहे पहरों तक
मन के भीगे भाव
शब्दों के कांधे रख अपना सर
अभिव्यक्तियाँ फूटीं
स्याही बनीं
बिखर गईं सादे कागज पर

स्याही का रंग हरा हो उठा
जिसने भी पलटा उन पन्नो को
उसे धरती दिखी हरी भरी
जिसने भी पढ़ा
कहा, भाव यही हों
जो हरियर कर दें
इस लाल होती धरती को