मन की पुस्तक / कमलेश द्विवेदी
शायद मेरे मन की पुस्तक तुम न सही ढँग से पढ़ पाये।
क्या कोई मुख पृष्ठ देखकर पूरी पुस्तक व्यर्थ बताये।
मुझ पर उँगली नहीं उठाते
कोई दोष न मुझको देते।
मेरे मन की पुस्तक की तुम
अगर भूमिका ही पढ़ लेते।
हर पन्ने पर तुम ही तुम हो मैं न कहूँ, पुस्तक बतलाये।
शायद मेरे मन की पुस्तक तुम न सही ढँग से पढ़ पाये।
पुस्तक के गीतों में तुम हो
इसके चित्रों में भी तुम हो।
पर जब तुमने पढ़ी न पुस्तक
फिर क्यों मेरी ख़ुशी न गुम हो।
तुम पढ़ लो तो शायद फिर से मेरी ख़ुशी मुझे मिल जाये।
शायद मेरे मन की पुस्तक तुम न सही ढँग से पढ़ पाये।
कभी देखकर कोई पुस्तक
उसे न यों ही व्यर्थ समझना।
उसे खोलकर पढ़ना, उसका
भाव समझना-अर्थ समझना।
जो भावों में जितना डूबे वह उतना आनन्द उठाये।
शायद मेरे मन की पुस्तक तुम न सही ढँग से पढ़ पाये।